एक राष्ट्र, एक चुनाव:

Title: एक राष्ट्र, एक चुनाव:

प्रस्तावना:
“एक राष्ट्र, एक चुनाव” एक ऐसा विचार है जो एक समृद्ध और समृद्धिशील भारत की दिशा में कदम बढ़ा सकता है। इस विचार का मतलब है कि पूरे देश में एक ही समय में चुनाव होना चाहिए ताकि सरकार नई ऊर्जा और दृढ़ता के साथ काम कर सके और जनता का भरपूर समर्थन पा सके। इस लेख में, हम इस विचार के पक्ष और पूर्वपक्षों को समझेंगे और यह देखेंगे कि कैसे “एक राष्ट्र, एक चुनाव” भारतीय राजनीति को प्रेरित कर सकता है।

पक्ष-प्रतिपक्ष:
“एक राष्ट्र, एक चुनाव” का पक्ष रखने वाले लोग यह मानते हैं कि यह एक तात्कालिक और सक्रिय तंत्र होगा जो नए और सकारात्मक नेतृत्व को बढ़ावा देगा। एक ही समय में चुनाव होने से यह सुनिश्चित हो सकता है कि समृद्धि के लिए सकारात्मक और ऊर्जावान नेतृत्व आता है। इससे भ्रष्टाचार और अशास्त्रीयता की स्थिति में सुधार हो सकता है और सरकार को नए और उत्तम नीतियों को प्राथमिकता देने का साहस हो सकता है।

हालांकि, इस विचार के प्रतिष्ठान्ता रखने वाले लोग इसे आपत्ति करते हैं क्योंकि उनका मानना ​​है कि एक समय में सभी राज्यों के चुनावों का आयोजन करना संभावना रहित है और इससे लोगों को विकल्प देने का अधिकार छूट सकता है। वे इसको लोकतंत्र के आदान-प्रदान के खिलाफ मानते हैं और यह उनकी राजनीतिक स्वतंत्रता को हानि पहुंचा सकता है।

समाधान और उपाय:
“एक राष्ट्र, एक चुनाव” के समर्थक और विरोधी दोनों को सुनने के बावजूद, इस मुद्दे का हल निकालना आवश्यक है। समर्थकों का कहना ​​है कि इसे संविधान में संशोधन करके संभावना से एक सरकार को बनाए रखा जा सकता है, जबकि विरोधी इसे लोकतंत्र की धारा में दुरुस्त करने की बात करते हैं। एक समझदार और सामंजस्यपूर्ण समाधान तैयार करना महत्वपूर्ण है ताकि राष्ट्र की जनता को सही रास्ता मिल सके।

समापन:
“एक राष्ट्र, एक चुनाव” एक महत्वपूर्ण मुद्दा है जिस पर बहस करना अत्यंत आवश्यक है। इसमें सकारात्मक और प्रतिष्ठान्ता रखने वाले लोगों के साथ-साथ विरोधी दलों के विचार भी शामिल होने चाहिए ताकि एक समर्थनीय और आपातकालिक तंत्र का निर्माण हो सके। यह सबको सामूहिक उत्थान की दिशा में मिलकर काम करने का एक मौका प्रदान कर सकता है जिससे भारत एक नए युग की ओर अग्रसर हो सकता है।

वर्ष 1951-52 से वर्ष 1967 तक लोक सभा और राज्य विधान सभाओं के निर्वाचन अधिकांशतः साथ-साथ कराए गए थे और इसके पश्चात् यह चक्र टूट गया और अब, निर्वाचन लगभग प्रत्येक वर्ष और एक वर्ष के भीतर विभिन्न समय पर भी आयोजित किए जाते हैं, जिसका परिणाम सरकार और अन्य हितधारकों द्वारा बहुत अधिक व्यय, ऐसे निर्वाचनों में लगाए गए सुरक्षा बलों और अन्य निर्वाचन अधिकारियों की उनकी महत्वपूर्ण रूप से लंबी कालावधि के लिए अपने मूल कर्तव्यों से भिन्न अन्यत्र तैनाती, आदर्श आचार संहिता, आदि के लंबी अवधि तक लागू रहने के कारण, विकास कार्य में दीर्घ अवधियों के लिए व्यवधान के रूप में होता है ;

भारत के विधि आयोग ने निर्वाचन विधियों में सुधार पर अपनी 170 वीं रिपोर्ट में यह संप्रेक्षण किया है कि : “प्रत्येक वर्ष और बिना उपयुक्त समय के निर्वाचनों के चक्र का अंत किया जाना चाहिए। हमें उस पूर्व स्थिति का फिर से अवलोकन करना चाहिए जहां लोक सभा और सभी विधान सभाओं के लिए निर्वाचन साथ-साथ किए जाते हैं। यह सत्य है कि हम सभी स्थितियों या संभाव्यताओं के विषय में कल्पना नहीं कर सकते हैं या उनके लिए उपबंध नहीं कर सकते हैं, चाहे अनुच्छेद 356 के प्रयोग के कारण (जो उच्चतम न्यायालय के एस. आर. बोम्मई बनाम भारत संघ के विनिश्चय के पश्चात् सारवान् रूप से कम हुआ है) या किसी अन्य कारण से उत्पन्न हो सकेंगी, किसी विधान सभा के लिए पृथक निर्वाचन आयोजित करना एक अपवाद होना चाहिए न कि नियम नियम यह होना चाहिए कि ‘लोक सभा और सभी विधान सभाओं के लिए पांच वर्ष में एक बार में एक निर्वाचन’ ।” ;

कार्मिक, लोक शिकायत, विधि और न्याय विभाग से संबंधित संसदीय स्थायी समिति ने ‘लोक सभा और राज्य विधान सभाओं के लिए साथ-साथ निर्वाचन आयोजित करने की साध्यता पर दिसम्बर 2015 में प्रस्तुत अपनी 79वीं रिपोर्ट में भी इस मामलें की जांच की है और दो चरणों में साथ-साथ निर्वाचन आयोजित करने की एक वैकल्पिक और व्यवहार्य विधि की सिफारिश की है;

अतः अब पूर्वोक्त को ध्यान में रखते हुए और राष्ट्रीय हित में साथ-साथ निर्वाचन कराना वांछनीय है, भारत सरकार साथ-साथ निर्वाचनों के मुद्दे की जांच करने और देश में एक साथ निर्वाचन आयोजित करने के लिए एक उच्च स्तरीय समिति (जिसे इसमें इसके पश्चात् ‘एचएलसी’ कहा गया है] का गठन करती है।

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